मंज़िल है तो इक रस्ता-ए-दुश्वार में गुम है रस्ता है तो पेच-ओ-ख़म-ए-दिलदार में गुम है

मंज़िल है तो इक रस्ता-ए-दुश्वार में गुम है 
रस्ता है तो पेच-ओ-ख़म-ए-दिलदार में गुम है 

जिस दीन से मिलता था ख़ुदा ख़ाना-ए-दिल में 
मुल्ला के सजाए हुए बाज़ार में गुम है 

अज्ज़ा-ए-सफ़र वर्ता-ए-हैरत में पड़े हैं 
रफ़्तार अभी साहिब-ए-रफ़्तार में गुम है 

साइल हैं कि उमडे ही चले आते हैं पैहम 
वो शोख़ मगर अपने ही दीदार में गुम है 

वो हुस्न-ए-यगाना है कोई शहर-ए-तिलिस्मात 
हर शख़्स जहाँ रस्तों के असरार में गुम है 

अश्ख़ास के जंगल में खड़ा सोच रहा हूँ 
इक नख़्ल-ए-तमन्ना उन्ही अश्जार में गुम है 

या हुन है ना-वाक़िफ़-ए-पिंदार-ए-मोहब्बत 
या इश्क़ ही आसानी-ए-अतवार में गुम है 

ऐ काश समझता कोई पस-मंज़र-ए-पैग़ाम 
दुनिया है कि पैराया-ए-इज़हार में गुम है

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